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स्वाधीनता आंदोलन में बाराबंकी के कलमकारी।

लेखक- प्रदीप सारंग

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश।

है नहीं तलवार अपने हाथ में तो क्या हुआ।

हम कलम से ही करेंगे सिरफिरों के सर कलम।।

किसी कलमकार की ये पंक्तियाँ लेखनी के एक उद्देश्य का बाखूबी बखान कर रही हैं। साहित्य का अर्थ ही है स+हित। यानी हित सहित।

जब सम्पूर्ण देश, ब्रितानिया सरकार के अत्याचार से पीड़ित था तो अन्य स्वाधीनता संग्राम के दीवानों की तरह कलमकार भी चुप नहीं रहे। देश के कई कलमकारों को जेल भी जाना पड़ा था। कई रचनाकारों की कृतियों पर प्रतिबंध लगाया गया था। सच पूछो तो ये भी अपने तरीके से अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे थे। बाराबंकी के कलमकार भी कतई पीछे नहीं रहे हैं। एक तरफ यहाँ के रणबांकुरों ने तलवार की धार तेज की तो बाराबंकी के कलमकारों ने भी कलम की धार का उपयोग कर आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

सन 1888 में चिनहट में जन्मे बद्री प्रसाद शुक्ल पुत्र प्रभु दयाल शुक्ल निवासी गनेशपुर बाराबंकी ने 1920 में देशबंधु प्रेस की स्थापना नगर बाराबंकी में की थी। इससे पहले बाराबंकी में न कोई प्रेस थी न ही अखबार। यह उल्लेख भी जरूरी है कि बद्री प्रसाद शुक्ल जी हिंदी के पहले अखबार उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशक सम्पादक जुगुल किशोर जी के प्रपौत्र थे। प्रेस स्थापना के 6 वर्ष बाद 1926 में देश बन्धु नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। यही बाराबंकी का पहला समाचार पत्र था। प्रकाशन के तीन माह बाद ही एक ऐसा लेख छप गया जो कि अंग्रेज अफसरों को नागवार गुजरा और तत्कालीन जिलाधिकारी पी मैंसन ने सम्पादक बद्री प्रसाद शुक्ला से माफी माँगने को कहा। माफी न माँगने पर अखबार का लाइसेंस रद्द कर दिया गया। प्रेस चलता रहा। सन 1928 में मसौली निवासी अध्यापक श्रीराम तिवारी ने अध्यापकों की समस्या पर "अध्यापक" नामक पाक्षिक अखबार का प्रकाशन देशबंधु प्रेस से ही शुरू किया। इस अखबार ने भी अध्यापकों के बहाने आजादी की एक तस्वीर बनाने की कोशिश की। 1932 में बहुचर्चित राष्ट्रवादी राम गोपाल सुशील और कवि शिव सिंह सरोज ने मिलकर "चिंगारी" नामक पत्रिका का प्रकाशन, सम्पादन इसी देश बन्धु प्रेस से आरम्भ किया। लगभग 6-7 माह छपने के बाद इस पत्रिका को अंग्रेज सरकार की नोटिस हो गयी। आखिरकार यह "चिंगारी" ज्वाला बनने से पहले ही बन्द करा दी गयी। 1932 में एक हजार रुपये की बड़ी जुर्माना राशि अदा करनी पड़ी। जमानत भी करानी पड़ी।

          स्वाधीनता के दीवानों की हिम्मत नहीं टूटी और बद्री प्रसाद शुक्ल ने फिर से 1935 में प्रभात नामक साप्ताहिक शुरु कर दिया। 1935 में ही कुछ उत्साही नवजवानों ने अवध वासी साप्ताहिक समाचार पत्र आरम्भ किया। जिसके सम्पादन प्रकाशन में राम गोपाल सुशील, शिव सिंह सरोज के साथ हरिप्रसाद सत्यप्रेमी और चंद्र भूषण शुक्ला की विशेष भूमिका थी। लगभग दो वर्ष छपते रहने के बाद दोनों प्रभात और अवधवासी बन्द हो गए। 1935 में ही हरख ग्राम के निवासी महावीर प्रसाद वर्मा (महावीर दास जी) ने कबीर विचार धारा का समाचार पत्र निकाला। यह भी देश बन्धु प्रेस पर छपता था। 

          हार मान जाए तो दीवाना कैसा? 1938 में पुनः तीसरी बार बद्री प्रसाद शुक्ल ने पंचायत नामक साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन संपादन शुरू किया। जो कि पंचायतों के नए स्वरूप की भी चर्चा प्रस्तुत करता था। दो बार के झेले बद्रीप्रसाद शुक्ल ने बहुत ही सधे कदमों से अखबार यात्रा आरम्भ की परिणामतः यह अखबार 1950 तक देशबन्धु प्रेस प्रजाहै छपता रहा। 1950 से 55 तक अपनी दूसरी स्थापित प्रेस प्रेस से छपा। कई वर्ष हिंदी और उर्दू दो भाषाओं में भी छपा। 

         1938 में ही दो और अखबार शुरू हुए। अध्यापक सरयू प्रसाद श्रीवास्तव ने "हमारी तालीम" नामक समाचार पत्र तथा अधिवक्ता स्वामी दयाल सिन्हा ने "हिंदी मिलाप" नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन देश बन्धु प्रेस से आरम्भ हुआ। हिंदी मिलाप आठ वर्ष तथा हमारी तालीम का प्रकाशन कई वर्षों तक होता रहा है। स्वाधीनता दीवानों का जोश आजादी प्राप्ति के बाद भी कम नहीं हुआ और 1948 में क्रांतिकारी चंद्र भूषण शुक्ल ने मातृभूमि नामक प्रेस की स्थापना की और कुछ ही दिन बाद मातृभूमि नामक समाचार पत्र का सम्पादन प्रकाशन शुरू किया। जो कि 1085 तक छपता रहा। बाराबंकी के इस देशबंधु प्रेस पर लगातार कोई न कोई समाचार पत्र प्रकाशित होते रहे और बचते बचाते स्वाधीनता की आग जलाई जाती रही।

         पत्रकारों के अलावा साहित्यकारों ने भी अंग्रेजों के अत्याचार पर कलम चलाई है। जिनमें शम्सी मीनाई और दर्शन लाल शशि का नाम अग्रणी है। 1909 में बाराबंकी की धरती को धन्य करने जन्मे दर्शन लाल शशि ने आजादी से पूर्व ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कृतित्व व्यक्तित्व पर आधारित- "आजादी का दीवाना" लिखा। जो कि आजादी के दीवानों में उबाल लाने में समर्थ रही है। इसी प्रकार 1919 में जिला बस्ती में जन्में शम्सी मीनाई जिनकी प्रारम्भिक शिक्षा बाराबंकी में ही हुई और यही कर्म भूमि बनी, ने अपनी कविताओं से ब्रितानिया सरकार के खिलाफ आंदोलन को नया आयाम देने में सफल रहे। इनकी कई नज्मों पर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा था। बार-बार अंग्रेज विरोधी तेवर की रचनाओं के कारण जेल भी जाना पड़ा था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम पर विश्व प्रसिद्ध रचना लिखने वाले शम्सी मीनाई की एक नज्म "समंदर से खिताब" ने अंग्रेज सरकार को बहुत ही परेशान कर रखा था। 1945 की एक घटना ही कलम की ताकत का अंदाजा लगाने को पर्याप्त है जब गोरखपुर के एक मुशायरे में शम्सी मीनाई अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध नज्म "समंदर से खिताब" पढ़ रहे थे तभी जिलाधिकारी गोरखपुर ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उपस्थित जनता ने हंगामा करना शुरू कर दिया। कई शायर भी मुखर हो गए। किसी तरह मामला शांत कराया गया। इस नज्म के एक हिस्से में शायर ने समंदर की विशेषताएं बताई हैं और दूसरे हिस्से में समंदर से कहते हैं कि तू एक ऐसा तूफान ला जो पश्चिम और अंग्रेजों के जुल्म को तबाह कर दे।

शम्सी मीनाई की इस नज्म के कुछ शेर इस प्रकार हैं-

समंदर तुझको तेरे खेल का मैदां बताता हूँ।

इसी दुनियाँ में एक दोजख है तुझको दिखाता हूँ।

जहां पर एक सफेद ओ सुर्ख इंसानों की बस्ती है।

हतक है लफ्ज इंसा की वो हैवानों की बस्ती है।

जंग की खूनी फजाँ में गुनगुना सकता हूँ मैं।

बरछियों की अंजुमन में मुस्करा सकता हूँ मैं।

भीख आजादी की लेना मेरी खुद्दारी से दूर।

अब गुलाम रहना मेरी होशियारी से दूर।

तुझको हिन्द ए खून के जौहर दिखा सकता हूँ मैं।

तेरी ताकत के परखच्चे भी उड़ा सकता हूँ मैं।

गर जीना है इस दुनियाँ में,

 लिल्लाह जियो आजादी से।

इक रोज तो आखिर मरना है,

 फिर क्यों न मरो आजादी से।

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Jr. Seraj Ahmad Quraishi
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